भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' की पुष्टि
भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया जिसमें संविधान की 42वीं संशोधन की वैधता को बरकरार रखा गया है। इस संशोधन के तहत 1976 में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्द जोड़े गए थे। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि इन शब्दों से निजी उद्यमिता या सरकार की धार्मिक प्रथाओं को खत्म करने में कोई बाधा नहीं आती।
इस संदर्भ में, मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने यह स्पष्ट किया कि पंथनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य किसी भी धर्म का पक्ष नहीं लेता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि सरकार विकास और समानता के अधिकार में बाधा डालने वाली धार्मिक प्रथाओं को समाप्त नहीं कर सकती। समाजवाद का मतलब है कि राज्य अपने आप को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में प्रस्तुत करता है और अवसर की समानता सुनिश्चित करता है।
संविधान और 42वीं संशोधन
42वीं संशोधन का महत्व यह है कि इसने भारतीय संविधान की प्रस्तावना में बदलाव लाते हुए 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ा। इन शब्दों को जोड़ने का उद्देश्य यह था कि यह राज्य की प्रतिबद्धता को स्पष्ट करे कि भारत एक समाजवादी और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है। अदालत ने इस मुद्दे पर जोर दिया कि इस संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण नहीं है।
संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत व्यापार करने के अधिकार का संरक्षण होता है। यही कारण है कि 'समाजवादी' शब्द के अंतर्गत भी आर्थिक नीतियों या व्यापार के अधिकार को बाधित नहीं करता है। इसी प्रकार, पंथनिरपेक्षता का अर्थ केवल धर्म निरपेक्षता नहीं है, बल्कि यह भी है कि सरकार किसी भी धर्म का पक्ष या विरोध नहीं करती। सरकार को नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी दी जाती है और यह गैर-भेदभाव की नीति पर चलती है।
यूपीसीसी और समानता
संविधान के अनुच्छेदों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत, सरकार को समान नागरिक संहिता (यूसीसी) बनाए रखने की स्वतंत्रता भी दी जाती है। यह अध्याय यह सुनिश्चित करता है कि धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को बिना हानि पहुंचाए संविधान की धर्मनिरपेक्षता की नीति पर कार्य किया जाए। याचिका में कहा गया था कि संविधान के निर्माताओं ने लम्बे विचार विमर्श के बाद इन दोनों शब्दों को निकल दिया था, और यह संशोधन लोकसभा के कार्यकाल समाप्त होने के आठ महीने बाद पास किया गया था।
हालांकि, अदालत ने इन दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि संविधान में संशोधन करने की शक्ति संसद को प्राप्त है, जो प्रस्तावना तक भी विस्तारित होती है। इसके अलावा, 42वीं संशोधन को लेकर लगभग 44 वर्षों के बाद संवैधानिक संशोधन को चुनौती देना अनुचित है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में समावेशिता
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत ने अपनी एक विशिष्ट पंथनिरपेक्षता की अवधारणा विकसित की है, जिसमें राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और न ही किसी धार्मिक विश्वास के पालन व अभिव्यक्ति को दंडित करता है। यह निर्णय भारत के समाजवादी और पंथनिरपेक्ष स्वरूप को दृढ़ता से बनाये रखने में सहायक सिद्ध होगा। अदालत का यह ऐतिहासिक निर्णय न्याय, सामाजिक समता और कल्याण को सुनिश्चित करने के भारत के संकल्प को पुनः पुष्ट करता है। इस फैसले से, संविधान के प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'पंथनिरपेक्ष' शब्दों को लेकर विवाद की स्थिति समाप्त हो गई है। अदालती फैसला इस दिशा में भारत की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है।
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