हिंदी सिनेमा में अक्सर बड़े बजट और चमक-दमक की चर्चा होती है, लेकिन जब किसी सामाजिक ड्रामा के साथ मार्टिन स्कॉर्सेसी जैसा दिग्गज एक्ज़ीक्यूटिव प्रोड्यूसर जुड़ जाए, तो बात खुद-ब-खुद गंभीर हो जाती है। Dharma Productions ने 17 सितंबर 2025 को Homebound ट्रेलर जारी किया और पहली झलक से साफ है—ये कहानी भीतर तक असर छोड़ने वाली है। नीरज घायवान की निर्देशन शैली, ईशान खट्टर–विषाल जेठवा की सधा अभिनय ऊर्जा और जाह्नवी कपूर की अहम मौजूदगी—सब मिलकर एक ऐसे अनुभव की ओर इशारा करते हैं जो शोर नहीं, असर से काम करता है।
कहानी और किरदार: दोस्ती, गरिमा और संघर्ष
ट्रेलर हमें उत्तर भारत के एक छोटे गांव से उठाकर उन गलियारों में ले जाता है जहां सपने भी अक्सर पर्मानेंट एड्रेस मांगते हैं—सरकारी नौकरी। मोहम्मद शोएब (ईशान खट्टर) और चंदन कुमार (विषाल जेठवा) बचपन के दोस्त हैं, और दोनों का ख्वाब एक ही—पुलिस की वर्दी। वजह सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि वो गरिमा जो उन्हें रोजमर्रा की तिरछी नजरों से बचा सके।
शोएब एक एमएनसी में ऑफिस बॉय है, मगर उसकी पहचान उसके काम से पहले आ जाती है। ट्रेलर में दिखता है कि नाम, खान-पान और नमाज़ जैसे निजी सवाल किस तरह उसके प्रोफेशनल दायरे में धकिया दिए जाते हैं। दूसरी तरफ चंदन दलित समुदाय से आता है और जाति के नाम पर होने वाली छोटी-छोटी, मगर चुभती हुई कटौतियों का सामना करता है—कभी अलग कप, कभी अलग बर्ताव, कभी बस चुप कर देने वाली निगाहें।
दोनों दोस्तों की जिद सरल है: पुलिस भर्ती की परीक्षा पास करनी है। वजह में जटिलता है: समाज की नजर में बराबरी की कुर्सी पर बैठना है। ये सिर्फ करियर नहीं, आत्मसम्मान की मुहिम है। ट्रेलर में परीक्षा फॉर्म भरने से लेकर तैयारी, रिजेक्शन, और दोबारा उठ खड़े होने तक की झलक मिलती है—बिना मेलोड्रामा, बिना घोषणाओं के।
यहीं पर आती हैं सुधा भारती (जाह्नवी कपूर)। ट्रेलर साफ करता है कि सुधा ‘साइड नोट’ नहीं हैं। वो अपने संदर्भ की महिलाओं पर लगी अदृश्य रेखाओं को पहचानती हैं और उनसे बाहर जाने का रास्ता भी खोजती हैं। चंदन को नैतिक स्पष्टता बनाए रखने में उनकी भूमिका अहम दिखती है—कभी चुनौती देकर, कभी सहारा बनकर। इस त्रिकोण में प्यार से ज्यादा भरोसे और जिम्मेदारी का वजन है।
ईशान खट्टर के हावभाव दबे हुए गुस्से और आत्मसम्मान की बेचैनी को पकड़ते हैं। विषाल जेठवा की स्क्रीन-प्रेज़ेंस सीधी-सी बात कहती है—जब ठुकराया जाए, तब भी जमे रहना एक कला है। जाह्नवी का किरदार उन छोटी आवाज़ों को जगह देता है जो अक्सर बड़े फैसलों को दिशा दे जाती हैं।
नीरज घायवान की पहचान ‘मसान’ जैसे कामों से बनी—लोकेशन-ट्रुथ, अनावश्यक सजावट से दूरी और किरदारों के भीतर की दरारों पर कैमरे की टिकती हुई नजर। ‘होमबाउंड’ में वही टोन दिखती है। लेखन टीम में बशारत पीर, सुमित रॉय और खुद घायवान की मौजूदगी इस बात का संकेत है कि कहानी सामाजिक-राजनीतिक बारीकियों से आंख मिलाकर चलती है। डायलॉग्स पर वरुण ग्रोवर और श्रीधर दूबे के नाम बतौर सह-लेखक जुड़ना, भाषा को ऑथेंटिसिटी देता है—ट्रेलर की एक-आध पंक्तियां सुनकर यह साफ महसूस होता है।
दोस्ती की केमिस्ट्री यहां हीरोइज़्म से नहीं, असमानताओं को साथ बांटने से बनती है। कभी शोएब चंदन को खींचता है, कभी चंदन शोएब को संभालता है। यह ‘बडी फिल्म’ नहीं, बल्कि दो अलग-अलग दीवारों से टकराती जिंदगियों का साझा प्रतिरोध है।
ट्रेलर के दृश्य स्लीक कट्स से नहीं, ठहराव से असर डालते हैं—चाय की दुकान, ऑफिस का कॉरिडोर, कोचिंग की क्लास, खाली गलियां। कैमरा किरदारों के पास खड़ा लगता है, ऊपर से झांकता नहीं। कई जगह साउंड डिज़ाइन भी उसी ‘क्लोजनेस’ की तरफ इशारा करता है—कुर्सी खिसकने की आवाज, रजिस्टर पलटने का धीमा सरसराना, भीड़ में सांसों की रफ्तार।
- निर्देशक: नीरज घायवान
- एक्ज़ीक्यूटिव प्रोड्यूसर: मार्टिन स्कॉर्सेसी
- प्रोड्यूसर्स: करण जौहर, आदार पूनावाला, अपूर्वा मेहता; को-प्रोड्यूसर्स: मराइक दे सूज़ा, मेलिटा तोस्कन दु प्लांटियर
- कहानी: बशारत पीर, नीरज घायवान, सुमित रॉय
- स्क्रीनप्ले: नीरज घायवान
- डायलॉग्स: नीरज घायवान, वरुण ग्रोवर, श्रीधर दूबे
- मुख्य कलाकार: ईशान खट्टर (मोहम्मद शोएब), विषाल जेठवा (चंदन कुमार), जाह्नवी कपूर (सुधा भारती)
- रनटाइम: 1 घंटा 59 मिनट | भाषा: हिंदी
- टेक्निकल फॉर्मेट: डॉल्बी डिजिटल | आस्पेक्ट रेशियो: 1.66:1
- रिलीज़: 26 सितंबर 2025 (वैश्विक) | ओवरसीज़ डिस्ट्रीब्यूशन: PHARS Film, Moviegoers Entertainment
निर्माण, तकनीक और रिलीज़ प्लान: क्यों खास है ‘होमबाउंड’
फिल्म का वर्ल्ड प्रीमियर 21 मई 2025 को Cannes Film Festival के Un Certain Regard सेक्शन में हुआ—यह सेक्शन उन फिल्मों को स्पेस देता है जो अपनी शैली और नजर में अलग रास्ते चुनती हैं। वहां इसे ‘इंटीमेट स्टोरीटेलिंग’ और परफॉर्मेंस के लिए सराहा गया। इसके बाद Toronto International Film Festival के 50वें एडिशन में फिल्म को International People’s Choice Award में सेकंड रनर-अप का दर्जा मिला—मतलब दर्शकों के बीच भी इसकी पकड़ बनी।
मार्टिन स्कॉर्सेसी का नाम यहां केवल ‘ग्लोबल स्टैंप’ नहीं, बल्कि क्यूरेशन का संकेत भी है—किस कहानी का कंधा थामना चाहिए, इस समझ के साथ। जब एक भारतीय सामाजिक ड्रामा को ऐसा बैकिंग मिलती है, तो यह अंतरराष्ट्रीय सर्किट में उसकी दृश्यता और डिस्ट्रीब्यूशन की राह आसान करती है। PHARS Film और Moviegoers Entertainment जैसे ओवरसीज़ पार्टनर्स का जुड़ना उसी रणनीति का हिस्सा पढ़ता है।
टेक्निकल लेवल पर 1.66:1 आस्पेक्ट रेशियो एक दिलचस्प चुनाव है। यह फ्रेम किरदारों के चेहरों और उनके इंटीरियर स्पेस—कमरे, गलियारे, छोटे ऑफिस—को ज्यादा नज़दीक से महसूस कराता है। डॉल्बी डिजिटल मिक्सिंग ट्रेलर में सुनी गई ध्वनियों की परतों—खामोशी, मद्धम शोर, अचानक उभरती धुन—को जगह देती है। 1 घंटा 59 मिनट का रनटाइम बताता है कि कहानी लंबी चौड़ी नहीं, फोकस्ड है।
ट्रेलर देखकर लगता है कि फिल्म ‘थीमैटिक लोड’ को प्रवचन बनाकर नहीं, किरदारों के चुनावों से आगे बढ़ाती है। उदाहरण के लिए, शोएब के साथ ‘धर्म’ और ‘प्रोफेशन’ की रस्साकशी ऑफिस की सबसे सामान्य-सी स्थितियों में रखी गई है—टी-ब्रेक, एचआर की मीटिंग, कैफेटेरिया की मेज। चंदन के साथ जाति की दीवारें किसी बड़े नाटकीय टकराव से नहीं, रोजमर्रा के व्यवहार से सामने आती हैं—वहां असहज ठहराव खुद संवाद बन जाता है।
सुधा का आर्क इस कहानी की प्रैक्टिकलिटी बढ़ाता है। वो सपनों के लिए ‘अनुमति’ नहीं मांगतीं—अपने छोटे-छोटे फैसलों से उनके दायरे बढ़ाती हैं। यह ट्रैक उस सामाजिक हकीकत की तरफ इशारा है जिसमें महिलाओं की महत्वाकांक्षाएं अक्सर ‘घर’ और ‘इज्जत’ के शब्दों में फंस जाती हैं।
दोस्ती यहां किसी महान आदर्श की वजह से नहीं, बल्कि साझा झटकों से मजबूत है। सरकारी नौकरी—खासकर पुलिस—को लेकर जो ‘सम्मान’ और ‘सुरक्षा’ की उम्मीद समाज में बैठी है, फिल्म उसी भावभूमि का इस्तेमाल करती दिखती है। ट्रेलर यह उम्मीद भी जगाता है कि वर्दी यहां ‘पावर फैंटेसी’ नहीं, ‘गरिमा’ का रूपक बनेगी।
फेस्टिवल सर्किट की शुरुआती प्रतिक्रियाओं के बाद ट्रेलर पर दर्शकों ने जो कहा, वह सीधा-सा है—‘मूविंग’ और ‘पावरफुल’। कई कमेंट्स उस चुभन को नोट करते हैं जो ट्रेलर के शांत टोन से पैदा होती है। मार्केटिंग की भाषा में यह ‘हाई-कॉन्सेप्ट’ नहीं, ‘हाई-इम्पैक्ट’ कंटेंट है—जो देखे जाने के बाद देर तक साथ रहता है।
कास्टिंग की बात करें तो ईशान खट्टर का बॉडी लैंग्वेज ‘अंडरप्ले’ की मिसाल देता है—शोएब की चुप्पी खाली नहीं, भरी हुई लगती है। विषाल जेठवा ‘रिलेंटलेस’ किरदारों को बिना शोर उग्रता के निभा लेते हैं—यहां भी वही रफ्तार दिखती है। जाह्नवी कपूर के हिस्से में जो स्पेस है, उसमें वह ‘सपोर्टिंग’ शब्द को ‘ड्राइविंग’ में बदलती नजर आती हैं—कहानी को आगे बढ़ाने वाली ताकत के रूप में।
नीरज घायवान और लेखन टीम के संयोजन में एक और चीज साफ दिखती है—भाषा का टोन। न तो ‘एक्टिविस्ट पोस्टर’ वाली नाराबाजी, न ‘क्लिकबेट’ वाले बड़े डायलॉग्स। ट्रेलर संकेत देता है कि बातचीत वही है जो गलियों, दफ्तरों और कोचिंग सेंटर्स में रोज सुनाई देती है। यह ऑथेंटिसिटी ही फिल्म को ‘इमोशन-हेवी’ होने के बावजूद ‘ओवर-द-टॉप’ होने से बचाती है।
रिलीज़ स्ट्रैटेजी सीधी है—26 सितंबर 2025 को वर्ल्डवाइड थिएटर रिलीज़। यह टाइमिंग फेस्टिवल बज़ और ट्रेलर रिसेप्शन को बॉक्स ऑफिस में बदलने का स्पेस देती है। ओवरसीज़ में PHARS Film और Moviegoers Entertainment का नेटवर्क दक्षिण एशियाई डायस्पोरा तक पहुंच सुनिश्चित करता है—खासकर खाड़ी, यूके, नॉर्थ अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड में, जहां हिंदी सोशल ड्रामा के लिए स्थिर ऑडियंस मौजूद है।
एक दिलचस्प क्रिएटिव चुनाव यह भी है कि फिल्म खुद को ‘इश्यू-पीस’ के रूप में नहीं बेचती। दोस्ती की कहानी आगे है; भेदभाव और पूर्वाग्रह उसी ट्रैक में बतौर बाधा आते हैं। इससे फिल्म के पास ‘इमोशनल एंट्री पॉइंट’ बन जाता है—दर्शक पहले किरदारों से जुड़ते हैं, फिर उस दुनिया के नियम अपनी जगह बना लेते हैं।
ट्रेलर में विजुअल मोटिफ्स—जैसे दरवाजों के फ्रेम, गेट पर रुकना, लाइन में खड़े रहना—अदृश्य बाधाओं के दृश्य रूप बनते हैं। ये छोटे-छोटे चुनाव कहानी को ‘नियम’ और ‘सिस्टम’ की बहस में घसीटे बिना वही बात दिखा देते हैं।
संगीत और साउंड का इस्तेमाल अब तक संयत है। बैकग्राउंड स्कोर आवाजें दबाता नहीं, उन्हें जगह देता है। कई बार चुप्पी ही सबकुछ कह जाती है—और वही सबसे बड़ी टेकअवे बनती है।
भारतीय सिनेमा के 2025 के परिदृश्य में जहां एक तरफ बड़े फ्रेंचाइज़ और दूसरी तरफ छोटे लेकिन तेज़-तर्रार इंडी प्रोजेक्ट्स हैं, ‘होमबाउंड’ बीच के रास्ते का एक भरोसेमंद उदाहरण लगता है—स्टूडियो बैकिंग के साथ इंडी-सेंसिबिलिटी। फेस्टिवल अपील, स्टार पावर और ग्राउंडेड राइटिंग का यह कॉम्बिनेशन दुर्लभ है, और वही इसे खास बनाता है।
आखिर में बात उसी पर टिकती है जिससे कहानी शुरू हुई थी—गरिमा। शोएब और चंदन की जद्दोजहद हमें याद दिलाती है कि बराबरी का दस्तावेज़ पास करने से ज्यादा, रोजमर्रा की प्रैक्टिस में उसे निभाना मुश्किल है। ट्रेलर ने जो वादा किया है, अगर फिल्म उसी टोन को फीचर लंबाई में थामे रखती है, तो ‘होमबाउंड’ 2025 की सबसे चर्चित भारतीय फिल्मों में अपनी जगह पक्की कर सकती है।
7 टिप्पणि
Aman Saifi
सितंबर 20, 2025 AT 20:19ट्रेलर देख के लगता है कि नीरज घायवान ने फिर से एक बारीक सामाजिक कहानी पकड़ ली है। दोस्ती और गरिमा के इर्द‑गिर्द घूमते मुद्दे आज के दर्शकों को जरूर झकझोरेंगे। छोटे‑छोटे पल‑पल के साथ जो भावनात्मक गहराई जुड़ी है, वह बड़ी फिल्म‑फॉर्मूला से अलग नई दिशा देती है। वास्तव में, इस तरह की सच्ची कहानी को बड़े प्रोडक्शन के साथ देखना दिलचस्प है।
Ashutosh Sharma
सितंबर 27, 2025 AT 18:19वाह, फिर भी ये ट्रेलर देख कर लगा जैसे कोई और सास्ती का विज्ञापन है।
Rana Ranjit
अक्तूबर 4, 2025 AT 16:19कई सालों से भारतीय सिनेमा में सामाजिक थ्रिलर का एक ख़ास स्थान रहा है, लेकिन ‘होमबाउंड’ इस निरंतरता में एक नई धुनी जोड़ता प्रतीत होता है। यह फिल्म केवल नौकरी‑के‑सपने नहीं, बल्कि उस सपने के पीछे छिपी इंसानियत को उजागर करती है। जैसे ही हम शोएब और चंदन की जिंदगी के छोटे‑छोटे झटकों को देखते हैं, हमें यह महसूस होता है कि प्रणाली के भीतर बँधे हुए इंसान की किस्मत भी बदल सकती है।
ऐसी कहानियों में अक्सर व्यक्तिगत इच्छा और सामाजिक बाधा के बीच संघर्ष को दिखाया जाता है, और यहाँ वह संघर्ष बहुत ही वास्तविक लग रहा है। फिल्म की कथा संरचना सामाजिक वर्ग, जाति‑व्यवस्थाओं और लैंगिक अड़चनों को बारीकी से छूती है, जिससे दर्शक अपने भीतर के पूर्वाग्रहों से भी उलझन महसूस कर सकते हैं।
कथानक के मुख्य बिंदु में पुलिस भर्ती की परीक्षा को एक प्रतीकात्मक मंच बनाकर पेश किया गया है, जहाँ हर लिखी लाइन में साहस और आत्म‑सम्मान की लड़ाई निहित है। इस पहलू को देखते हुए, दर्शक यह समझ पाएँगे कि एक साधारण परीक्षा कैसे सामाजिक स्तरीकरण को मौखिक रूप में बदल देती है।
जाह्नवी का किरदार, सुधा, इस त्रिकोणीय कहानी में एक महत्वपूर्ण मोड़ बनता है। वह केवल एक सहायक नहीं, बल्कि वह सामाजिक बंधनों को चुनौती देने वाली आवाज़ बनती है, जिससे रिश्तेदारी के पारस्परिक सम्मान का संदेश मिलता है।
कहानी में दर्शाए गए छोटे‑छोटे तनाव, जैसे कि चाय की दुकान में थम कर बैठने वाली नज़रें या कार्यालय में सूक्ष्म गतिशीलता, जीवन के वास्तविक ताने‑बाने को उजागर करती हैं। यह छोटे‑छोटे विवरण ही दर्शकों को कहानी में गहराई तक ले जाता है।
निर्देशक नीरज घायवान की शैली, जो ‘मसान’ जैसी सच्ची वास्तविकताओं पर आधारित है, इस फिल्म में भी झलकती है। उनका कैमरा सिर्फ कहानी नहीं, बल्कि किरदारों के अंदर के संघर्ष को भी कैप्चर करता है।
ट्रेलर में सुनाई देने वाली ध्वनि‑डिज़ाइन, जैसे कि सायरन की धुंधली आवाज़ या कागज़ की सख़्ती, महत्व को और बड़े स्तर पर बयान करती है। यह ध्वनि‑परिणाम दर्शकों को कहानी के साथ और भी जोड़ते हैं।
समग्र रूप से, ‘होमबाउंड’ सामाजिक असमानताओं को बड़े पैनल में नहीं ले जाता; बल्कि वह इन असमानताओं को छोटे‑छोटे व्यक्तिगत चुनौतियों के माध्यम से दर्शाता है। यह तरीका दर्शकों को साक्ष्य‑आधारित समझ प्रदान करता है, न कि केवल भावनात्मक अपील।
अंत में, इस फिल्म का मुख्य संदेश यह है कि गरिमा केवल एक पदवी नहीं, बल्कि दैनिक व्यवहार और छोटे‑छोटे चुनावों में समाहित है। यदि फिल्म अपने दृढ़ टोन को पूरे घंटे में बनाए रख पाती है, तो यह न केवल 2025 की प्रमुख फिल्म बन सकेगी, बल्कि सामाजिक बदलाव के लिये प्रेरणा का स्रोत भी सिद्ध हो सकती है।
Arundhati Barman Roy
अक्तूबर 11, 2025 AT 14:19ट्रेलर की प्रस्तुतिकरण मुझपर गहन प्रभाव डलती है, परन्तु कुछ भागों में संदेश कछु अस्पष्ट रहे। कास्ट की एक्टिंग सर्वे तुहमतजायक(??) जाल, पर फिल्मिक पद्धति में कुछ हद तक इज्जत बना रहे। चाहते हैं कि विज्ञापन अधिक स्पष्ट रूपसे सामाजिक मुद्दों पर प्रकाश डाले।
yogesh jassal
अक्तूबर 18, 2025 AT 12:19भाई, ट्रेलर देख के लग रहा है नया साल में कुछ ठोस देखने को मिलेगा! नीरज की फील्ड में इमैजिनेशन का दामन तोड़ के ये फिल्म आएगी. थोड़ा इंटेन्स है पर दिल भी छूता है, देखिएगा तो सही.
Raj Chumi
अक्तूबर 25, 2025 AT 10:19अरे वाह क्या बात है फिर कमाल की दास्तान है भाई इस ट्रेलर में एकदम दिल धड़कन चुप्पी में भी बयां हो रही है बस देखो थोड़ा और
mohit singhal
नवंबर 1, 2025 AT 08:19ये ट्रेलर देख तो मैं गर्व से फुदक रहा हूँ! देश की सच्ची कहानियों को ग्लोबल प्लेटफॉर्म पर लाने का टाइम आ गया है 🇮🇳🔥